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निबंध

अच्युतानंद मिश्र की पत्रकारिता

कृपाशंकर चौबे


हिंदी पत्रकारिता में पिछले चार दशकों के दौरान जो धाक और साख अच्युतानंद मिश्र ने बनाई, वह दूसरे किसी संपादक को मयस्सर नहीं हुई। अच्चुतानंद मिश्र नवभारत टाइम्स, जनसत्ता, अमर उजाला और लोकमत समाचार के संपादक रहे। जिन लोगों को अच्युतानंद मिश्र की आत्मीयता मिली है, उसे वे कभी नहीं भूल सकते। दिल्ली जाने पर वे अपनी गाड़ी तक हमें दे देते। बंगाली मार्केट में शानदार भोजन कराते। अच्युतानंद मिश्र संपादक के रूप में अपने दायित्व के प्रति बहुत सचेत रहते थे। वे चाहते थे कि उनके भीतर का संपादक पाठकों से जीवंत संवाद बनाए रखे। कहना न होगा कि पत्रकारिता बगैर संवाद के चल ही नहीं सकती और उसकी सार्थकता इस बात में है कि वह पाठकों से कितना जीवंत संवाद रखती है। किसी भी रचनात्मकता के लिए, विकास के लिए, यहाँ तक कि किसी समुदाय को आगे ले जाने के लिए संवाद जरूरी है। समाज में जहां भी अनौचित्य दिखता, अच्युतानंद मिश्र उसे टोकते। विभिन्न मसलों पर छपे उनके मुख्य लेख इसके सबूत हैं। अच्युतानंद मिश्र ने साहित्य-कला-संस्कृति के कई सबल पक्षों को हिन्दी पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया और राजनीति, शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण, स्त्री-विमर्श, दलित और अल्पसंख्यकों के समसामयिक सवालों को भी उम्दा तरीके से उठाया। अच्युतानंद मिश्र समालाप श्रृंखला के हिमायती रहे हैं। यानी उनकी ख्वाहिश थी कि दो बड़ी शख्सियत आपसे में संवाद करें। इसी श्रृंखला के तहत अच्युतानंद मिश्र ने रामविलास शर्मा से नामवर सिंह की बातचीत रेकार्ड कराई थी। कहने की जरूरत नहीं कि इस तरह का मौलिक प्रयोग वही कर सकता है जो विजनरी हो। साहित्य और पत्रकारिता के अंतर्संबंध पर अच्युतानंद मिश्र ने दिल्ली में अलग से संवाद श्रृंखला शुरू की थी। उसी कड़ी में वे धर्मवीर भारती, अज्ञेय और रघुवीर सहाय की पत्रकारिता पर भी लंबे समय तक अनुशीलनरत रहे।

अच्युतानंद मिश्र ने हर जगह ऐसा परिवेश उपलब्ध कराया था कि उनके सहयोगी बंधनों और आत्ममुग्धता से मुक्त होकर खुले मन से और खुले ढंग से चीजों को देखते और उसका उन्मुक्त्त होकर विश्लेषण करते। अच्युतानंद जी कदाचित इसूलिए कारगर ढंग से जनता के सुख-दुख को सही अर्थों में प्रतिबिम्बित कर पाए। हिन्दी का बाजार तो बन गया, हिन्दी का समाज भी बने, यही अच्युतानंद मिश्र की सदैव कामना रही। छद्म और झूठ का खुलासा करने की नैतिक जिम्मेदारी से वे कभी पीछे नहीं हटे। राजनीतिक और सांस्कृतिक छद्म को भी उन्होंने उजागर किया। मिश्र जी ने सदैव जनतंत्र, समता, ज्ञान एवं वैज्ञानिक सोच विचार की चेतना को बल पहुँचाने की कोशिश की।

हर जगह उन्होंने पूरी ईमानदारी एवं निष्ठा से अपने समय के सवालों से मुठभेड़ करते हुए अपने समाज की जागरूक रहनुमाई की। उनकी पुस्तक 'सरोकारों के दायरे' में बीसवीं शताब्दी की सान्ध्य वेला और इक्कसवीं सदी के आरम्भ के भारतीय परिदृश्य का सटीक विवेचन किया गया है। समकालीन सामाजिक और सांस्कृतिक सन्दर्भों व सवालों का अच्युतानंद मिश्र का मूल्यांकन इतना सम्यक और सुचिन्तित है कि वह समाज, संस्कृति और राजनीति के प्रश्नों को जाँचने-परखने का मानक बन जाता है। इस किताब के लेख दीर्घजीवी और पठनीय हैं। इनमें निबन्ध की बुनावट, कहानी सी रोचकता, रेखाचित्र सी चुस्ती और पत्रकारिता जैसी यथार्थता है। अपनी सहजता और लालित्य में विशिष्ट इन लेखों को अच्युतानंद मिश्र ने इतनी जीवन्तता से रचा है कि पूरा समकालीन परिदृश्य सजीव हो उठता है। पुस्तक चार खण्डों में विभक्त है- चिन्तन, ऊर्जा-पुंज, सरोकार और परिदृश्य। चिन्तन खण्ड का पहला आलेख है 'पृथ्वी, मंगल और अन्तरिक्ष' । यह लेख इस तथ्य की ओर इशारा करता है कि अच्युतानंद मिश्र के चिन्तन व चिन्ता के दायरे में समूची पृथ्वी और अन्तरिक्ष का विस्तार है। इसी खण्ड में एक टिप्पणी है- 'एक सहस्राब्दी बेचने का सुख'। इसके तहत दूसरी सहस्राब्दी के अवसान और तीसरी के आगमन पर विचार करते हुए लेखक का ध्यान इस प्रश्न पर जाता है कि पहली सहस्राब्दी की समाप्ति पर दुनिया का मानचित्र कैसा था? और उस सहस्राब्दी का इतिहास रचनेवालों को इतिहासकारों ने कितनी ईमानदारी से पेश किया है? दूसरी सहस्राब्दी को लहूलुहान करने वाले युद्धलोलुप सूरमाओं ने अपनी विजय गाथाओं को इतिहास की आड़ लेकर नयी पीढ़ी के लिए किस रूप में पेश किया है? अच्युतानन्द मिश्र ने एक हजार वर्ष की इतिहास-गाथा को एक हजार शब्दों में चामत्कारिक ढंग से समेटा है- "पूरी अन्तिम शताब्दी राजनीतिक और आर्थिक उपनिवेशों, महायुद्धों, एटम बमों और आतंकवादियों की कहानी कह रही है। ताकतवर देशों की असभ्यताओं को पराजित देशों पर थोपना ही उसका इतिहास है। जो युद्ध का उन्माद और हथियार साथ-साथ पैदा करते हैं, वे विश्व संस्कृति, मानवाधिकार और सहस्राब्दी भी साथ-साथ बेचते हैं।... करोड़ों नरसंहारों से लहूलुहान यह शताब्दी राजनीति और युद्ध, शोषण और अन्याय के इतिहास का अद्भुत संग्रहालय है।... क्यों पूरी दुनिया को लुभाने के लिए यह झूठ फैलाया जा रहा है कि तीसरी सहस्राब्दी के नये सूरज की पहली किरण देखने वाले एक इतिहास के साक्षी बनेंगे।"

अच्युतानंद मिश्र ने जिस शिद्दत से भारतीय बुद्धिजीवियों के दायित्वबोध के सवाल पर विचार किया है, उसी त्वरा में राष्ट्रभाषा बनाम राजभाषा पर भी। श्री मिश्र के इस कथन से किसी की असहमति नहीं हो सकती कि आजादी के बाद के छह दशकों में राजनेताओं और सभी क्षेत्रों के बुद्धिजीवियों की प्रामाणिकता घटी है। उनके राष्ट्रीय चिन्तन, बौद्धिक ईमानदारी तथा सैद्धान्तिक प्रतिबद्धता पर से लोगों का भरोसा उठता जा रहा है क्योंकि उनके जीवन आदर्श राजनेता और अभिनेता हो गए और इतिहास के मूल्यों व संस्कारों की ओर देखने की उनकी दृष्टि विखण्डित हो गई। श्री मिश्र के चिन्तन-मनन और संवेदन-संस्कारों पर आजादी की लड़ाई के मूल्य-मानकों का गहरा प्रभाव है। पुस्तक में सर्वत्र अच्युतानंद मिश्र की मूल्य चिन्ता और मनुष्यता, सच्चाई की रक्षा की चिन्ता मुखर है। 'कठघरे में कैद बुद्धिजीवी' शीर्षक आलेख में एक राजनेता के कथन का हवाला देते हुए श्री मिश्र ने कहा है, "अगर राजनीति का अपराधीकरण करने का आरोप राजनीतिक दलों पर है तो शिक्षा, न्याय, प्रशासन, मीडिया, कला, साहित्य या इतिहास में फैली हुई विकृतियों के लिए वे बुद्धिजीवी जिम्मेदार क्यों नहीं हैं जो अपने आपको सामाजिक नैतिकता का पहरुआ मानते हैं।"

अच्युतानंद मिश्र की चिन्ता यह है कि सत्ता से सच कहने, उससे बेबाक ढंग से असहमति जताने और खरी-खरी कहने व प्रतिरोध की ताकत क्यों सिकुड़ती गई? इन कारणों ने पार्टी व सरकारों के संचालन में विचारधारा और आदर्शवाद को खो दिया है। इसीलिए उनकी विश्वसनीयता के साथ समाज के लिए उपयोगिता भी तेजी से घट रही है। राजनीति में आई विकृतियों पर श्री मिश्र उँगली रखते हैं और मूल्यों की हाँक लगाते हैं। अच्युतानंद मिश्र जलयोद्धा राजेन्द्र सिंह पर हुए प्रहार को देश पर प्रहार की संज्ञा देते हैं। पूरी दुनिया में उग्र हो रहे जल संकट और वर्षा जल संरक्षण के क्षेत्र में राजेन्द्र सिंह की उपलब्धियों पर दृष्टिपात करते हुए राजेन्द्र सिंह पर हुए प्रहार के प्रतिकार का वे आह्वान करते हैं। राजेन्द्र सिंह सरीखी समाज की कई विभूतियों के रचनात्मक अवदान को अच्युतानंद मिश्र ने इस तरह प्रस्तुत किया है ताकि वह दिशाहीन हो रहे समाज को सर्जनशील दिशा दे सके। सुगम संगीत की साम्राज्ञी लता मंगेशकर की वाणी की मधुरता, मन के सौन्दर्य और हर ऊँचाई के साथ बढ़ती विनम्रता का उल्लेख करते हुए श्री मिश्र जड़ता पर रचनात्मक चोट करना नहीं भूलते। उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ पर लिखते हुए उनकी गहरी पीड़ा और असुरक्षा बोध के लिए श्री मिश्र ने सत्ता को फटकार लगाई है और कहा है कि भारतीय संगीत के इस पुरोधा के प्रति समाज और सरकार की उपेक्षा अक्षम्य अपराध है।

सम्पादक के रूप में सुदीर्घ अनुभव रखने वाले अच्युतानन्द मिश्र के अध्ययन, चिन्तन और मनन का एक महत्वपूर्ण विषय 'साहित्य और पत्रकारिता का अन्तर्सम्बन्ध' रहा है और इसकी झलक इस पुस्तक में भी मिलती है। श्री मिश्र का मूल्य चेतस मन विद्याधर नायपाल के बुद्धिजीवियों सम्बन्धी विचारों के सतही विरोध से प्रभावित नहीं होता तो 'का-पुरुषों को ललकारती तसलीमा नसरीन' के साहस का भी विवेक-सम्मत विवेचन करता है। जन संस्कृति मंच के अध्यक्ष पद से त्रिलोचन के हटाए जाने पर टिप्पणी करते हुए श्री मिश्र ने ठीक कहा है, 'उन्हें प्रगतिशीलता का किसी मंच से प्रमाण-पत्र नहीं चाहिए। वे एक जन पक्षधर योद्धा एवं साहित्यकार हैं और बने रहेंगे। संगठनों की आवश्यकता से कोई इनकार नहीं कर सकता लेकिन साहित्य के नाम पर गठित संगठन जब राजनीतिक मतवादों से प्रेरित होते हैं तो वे मार्गदर्शन से ज्यादा फतवा देने का काम करते हैं।

श्री मिश्र ने स्त्री अस्मिता और स्त्री मुक्ति के प्रश्नों पर विचार किया है तो कामगारों और उनके जन आन्दोलनों पर भी। उनकी नजर शिक्षा में राजनीतिक वर्चस्व पर है तो नदियों को जोड़ने के सम्भावित खतरों और प्रदूषण की पीड़ा पर भी। मिश्र जी ने पेप्सी कोक के लिए सरकार की बेशर्मी को कोसा है तो लोकसभा में लोकपाल, नकली राजनीति की असली तस्वीर भी उनकी नजर से नहीं छूटी है। पुस्तक में संकलित निबंधों व लेखों में राजनीति से आक्रान्त होकर बिखरते समाज, साहित्य और मीडिया, धर्म और संस्कृति के सार्वकालिक सरोकारों के सवालों पर विचार करते हुए अच्युतानंद मिश्र उन जगहों में भी जाते हैं जहाँ अभी भी सम्भावनाएँ बची हुई हैं। अच्युतानंद मिश्र का व्यक्तित्व बहुआयामी है। वे माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के कुलपति रहे और वहां भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता पर शोध व लेखन प्रकल्प प्रारंभ किया और उसके तहत अस्सी किताबें निकालीं। वे पत्रकारों की सबसे बड़ी संस्था एनयूजे के भी अध्यक्ष रहे। संप्रति गाजियाबाद में रहकर वे स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं।


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हिंदी समय में कृपाशंकर चौबे की रचनाएँ